भाई , आप मुझ कविता सुनाने कहते हैं ,
कविता सुनना मुझे अच्छा लगता है ,
लोग कविता सुनाते हैं ,
लोग ताली बजाते हैं ,
हम भी कविता सुनते हैं ,
सब को देख कर ,
हम भी ताली बजाते हैं ,
वैसे ताली बजाने में कुछ भी नहीं रखा है ,
बोर कविता पर भी ,
कवियों को ताली बजाते देखा है।
मुझे कविता नहीं आती ,
न लिखना , न पढ़ना ,
गो कि , काला अक्षर भैंस बराबर ,
लेकिन , चूंकि आप कह रहे हैं ,
कुछ जिद भी कर रहे हैं ,
तो , आईये , मैं कविता तो नहीं ,
एक वाकया सुनाता हूँ ,
और इसे ही ,
अपनी कविता बताना चाहता हूँ।
ताली बजाना कोई जरूरी नहीं है ,
क्योंकि यह एक किस्सा है ,
जीवन का एक हिस्सा है।
एक दिन मेरे एक प्रिय मित्र ने
मुझ से पूछा -
भाई , ' शर्म ' क्या होता है ?
और
" बेशर्मी " क्या होती है ?
प्रश्न सुनकर मैं अचकचाया ,
पहले तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया ,
दिमाग पर जोर लगाया ,
अपनी भैंस वाली बुद्धी में
जो कुछ आया , उन्हें बताया ,
और एक ज्वलंत किस्सा सुनाया।
किस्सा यूँ है कि
तमाम अखबारों और न्यूज़चैनलों में
एक दिन एक समाचार आया -
एक शहर के जनपथ ( हाईवे ) पर
अपहरण और फिर
माँ - बेटी के साथ .......
दूसरे दिन एक मंत्री जी का बयान आया -
" राजनितिक साजिस "
तीसरे दिन फिर
एक अन्य मंत्री जी ने फरमाया -
यही घटना पहले वाले मंत्री जी के
घरवालों के साथ होती तो ?
' अमर्यादित भाषा ' ।
भाई , हाईवे पर जो कुछ हुआ
वह है " शर्म "
और , बाद में जो कुछ हुआ ,
वह है " बेशर्मी "
अमर्यादित भाषाएँ भी
' बेशर्म ' की श्रेणी में होती हैं।
' शर्म ' और ' बेशर्म ' की तमीज
अब किसी में नहीं रह गई है ,
क्या पढ़े , क्या अनपढ़े ,
क्या बड़े क्या छोटे ,
क्या संतरी क्या मन्त्री ,
इस कुकृत्य में शामिल हो
केवल " गंगा " को ही नहीं
अपितु , सम्पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित कर रहे हैं ,
ऐसे में " गंगा " की सफाई क्या ख़ाक होगी ?
स्कूल हो या कॉलेज , होटल हो या घर ,
बाजार या मॉल ,
खेल का मैदान हो या दफ्तर ,
ट्रेन हो या हवाई जहाज ,
हर रोज चीखें उठती हैं ,
गाँव -गली , हर घर - हर शहर ,
सभी सहमें हैं ,
कोई ' गौ रक्षा ' के नाम पर ,
तो कहीं जातिवाद के नाम पर ,
अमानवीय यातनाएं दे रहा है ,
जिन्हें आप देख - सुन कर भी
नहीं देखते ,
कहीं नंगा कर उनके खुले जिस्म पर
सोटियां बरसाते हैं ,
कहीं नंगे कोमल तलवों पर
प्रहार करते हैं ,
मानो
मरे हुए मवेशियों के खाल उतारने के
काम का जिम्मा जिनका था
उनसे , उनका हक़ छीन कर
ये धर्म और समाज के तथाकथित उद्धारक,
जीवित लोगों की चमड़ी उधेरने में लग गए हैं।
यह शर्म ही नहीं , अति शर्म की बात है
और उससे भी इतर
इन दुर्घटनाओं पर राजनीति
' बेशर्मी ' की हद की बात है।
ऐसी हर वीभत्स
घटनाओं - दुर्घटनाओं पर
सभी राजनीतिक पार्टियों का,
पीड़ितास्थल पर,
एक - एक कर जमावड़ा,
और पीड़ित -पीड़िता के
अस्मत को तार -तार करते ,
उसके दग्ध ह्रदय के
जख्मकी धधकती आग पर ,
अपनी - अपनी
राजनितिक रोटियाँ सेंकना भी
बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं , तो
और क्या है ?
अन्यथा , नहीं तो ,
ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती।
भाई ,यहाँ तो , न उम्र देखते , न जाति ,
सभी एक ही जूठन पर पिल पड़ते हैं।
कानून भी कभी - कभी
उघेड़ती है बखिया ,
इन दग्ध पीड़ितों की ,
जो , रहा - सहा कसर बाँकी रह जाता है ,
उसे पूरी करता है ' मानवाधिकार आयोग ' ,
पीड़ितों का मानसिक शल्य - क्रिया कर ,
जो जख़्म सूखने को है ,
उसमें वे " स्पीरिट " डाल कर रखते हैं जिन्दा ,
ताकि वे , कह सकें -
हमने भी काम किया है।
क्या ये कानूनी प्रक्रियायें
बिना शोर - शराबे के नहीं हो सकतीं ?
मेरी समझ में ' शर्म ' और बेशर्मी को
किसी और तरीके से
परिभाषित नहीं किया जा सकता।
आप ही बताइये -
क्या आपके पास भी
कोई नई परिभाषा है क्या ?
किस्सा यहीं करते हैं समाप्त ,
आप ताली बजाइये या नहीं ,
पर यह तो सोचिये
समाज कहाँ जा रहा है ?
और ,
जहाँ जिस गर्त में जा रहा है
उससे उबरने का रास्ता बताइये।
उससे उबरने का ........
विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
( उत्तराखण्ड )
पिन - 248001
कविता सुनना मुझे अच्छा लगता है ,
लोग कविता सुनाते हैं ,
लोग ताली बजाते हैं ,
हम भी कविता सुनते हैं ,
सब को देख कर ,
हम भी ताली बजाते हैं ,
वैसे ताली बजाने में कुछ भी नहीं रखा है ,
बोर कविता पर भी ,
कवियों को ताली बजाते देखा है।
मुझे कविता नहीं आती ,
न लिखना , न पढ़ना ,
गो कि , काला अक्षर भैंस बराबर ,
लेकिन , चूंकि आप कह रहे हैं ,
कुछ जिद भी कर रहे हैं ,
तो , आईये , मैं कविता तो नहीं ,
एक वाकया सुनाता हूँ ,
और इसे ही ,
अपनी कविता बताना चाहता हूँ।
ताली बजाना कोई जरूरी नहीं है ,
क्योंकि यह एक किस्सा है ,
जीवन का एक हिस्सा है।
एक दिन मेरे एक प्रिय मित्र ने
मुझ से पूछा -
भाई , ' शर्म ' क्या होता है ?
और
" बेशर्मी " क्या होती है ?
प्रश्न सुनकर मैं अचकचाया ,
पहले तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया ,
दिमाग पर जोर लगाया ,
अपनी भैंस वाली बुद्धी में
जो कुछ आया , उन्हें बताया ,
और एक ज्वलंत किस्सा सुनाया।
किस्सा यूँ है कि
तमाम अखबारों और न्यूज़चैनलों में
एक दिन एक समाचार आया -
एक शहर के जनपथ ( हाईवे ) पर
अपहरण और फिर
माँ - बेटी के साथ .......
दूसरे दिन एक मंत्री जी का बयान आया -
" राजनितिक साजिस "
तीसरे दिन फिर
एक अन्य मंत्री जी ने फरमाया -
यही घटना पहले वाले मंत्री जी के
घरवालों के साथ होती तो ?
' अमर्यादित भाषा ' ।
भाई , हाईवे पर जो कुछ हुआ
वह है " शर्म "
और , बाद में जो कुछ हुआ ,
वह है " बेशर्मी "
अमर्यादित भाषाएँ भी
' बेशर्म ' की श्रेणी में होती हैं।
' शर्म ' और ' बेशर्म ' की तमीज
अब किसी में नहीं रह गई है ,
क्या पढ़े , क्या अनपढ़े ,
क्या बड़े क्या छोटे ,
क्या संतरी क्या मन्त्री ,
इस कुकृत्य में शामिल हो
केवल " गंगा " को ही नहीं
अपितु , सम्पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित कर रहे हैं ,
ऐसे में " गंगा " की सफाई क्या ख़ाक होगी ?
स्कूल हो या कॉलेज , होटल हो या घर ,
बाजार या मॉल ,
खेल का मैदान हो या दफ्तर ,
ट्रेन हो या हवाई जहाज ,
हर रोज चीखें उठती हैं ,
गाँव -गली , हर घर - हर शहर ,
सभी सहमें हैं ,
कोई ' गौ रक्षा ' के नाम पर ,
तो कहीं जातिवाद के नाम पर ,
अमानवीय यातनाएं दे रहा है ,
जिन्हें आप देख - सुन कर भी
नहीं देखते ,
कहीं नंगा कर उनके खुले जिस्म पर
सोटियां बरसाते हैं ,
कहीं नंगे कोमल तलवों पर
प्रहार करते हैं ,
मानो
मरे हुए मवेशियों के खाल उतारने के
काम का जिम्मा जिनका था
उनसे , उनका हक़ छीन कर
ये धर्म और समाज के तथाकथित उद्धारक,
जीवित लोगों की चमड़ी उधेरने में लग गए हैं।
यह शर्म ही नहीं , अति शर्म की बात है
और उससे भी इतर
इन दुर्घटनाओं पर राजनीति
' बेशर्मी ' की हद की बात है।
ऐसी हर वीभत्स
घटनाओं - दुर्घटनाओं पर
सभी राजनीतिक पार्टियों का,
पीड़ितास्थल पर,
एक - एक कर जमावड़ा,
और पीड़ित -पीड़िता के
अस्मत को तार -तार करते ,
उसके दग्ध ह्रदय के
जख्मकी धधकती आग पर ,
अपनी - अपनी
राजनितिक रोटियाँ सेंकना भी
बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं , तो
और क्या है ?
अन्यथा , नहीं तो ,
ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती।
भाई ,यहाँ तो , न उम्र देखते , न जाति ,
सभी एक ही जूठन पर पिल पड़ते हैं।
कानून भी कभी - कभी
उघेड़ती है बखिया ,
इन दग्ध पीड़ितों की ,
जो , रहा - सहा कसर बाँकी रह जाता है ,
उसे पूरी करता है ' मानवाधिकार आयोग ' ,
पीड़ितों का मानसिक शल्य - क्रिया कर ,
जो जख़्म सूखने को है ,
उसमें वे " स्पीरिट " डाल कर रखते हैं जिन्दा ,
ताकि वे , कह सकें -
हमने भी काम किया है।
क्या ये कानूनी प्रक्रियायें
बिना शोर - शराबे के नहीं हो सकतीं ?
मेरी समझ में ' शर्म ' और बेशर्मी को
किसी और तरीके से
परिभाषित नहीं किया जा सकता।
आप ही बताइये -
क्या आपके पास भी
कोई नई परिभाषा है क्या ?
किस्सा यहीं करते हैं समाप्त ,
आप ताली बजाइये या नहीं ,
पर यह तो सोचिये
समाज कहाँ जा रहा है ?
और ,
जहाँ जिस गर्त में जा रहा है
उससे उबरने का रास्ता बताइये।
उससे उबरने का ........
विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
( उत्तराखण्ड )
पिन - 248001
No comments:
Post a Comment