चितवन से, जब कामदेव के , प्रीति - वाण चल जाता ,
दिग-दिगंत के रोम-रोम में ,मद वसंत छा जाता।वन-उपवन ,उपवन-वन ,कानन ,पवन बाबरा फिरता ,
डार -डार पर फूल बिहँसते ,अलि गुंजन है करता।
झूल आम्र की डार , बौर भी , सौरभ खूब लुटाता ,
चैत मास, फूले महुआ ,जब , वन सुरभित हो जाता।
अमलतास,सेमल,पलास भी , लहक- लहक सा जाता ,
मानो ,नवयौवना धरा के , स्वागत में बिछ जाता।
पिक पुकार में कोयलिया का , स्वर ,पंचम हो जाता ,
प्रत्युत्तर में ,छिप कर पिक भी ,उसको खूब रिझाता।
फूले सरसों ,खेत-खेत में , जब वसंत है आता ,
पनघट पर निहुरे गोरी का , यौवन है मदमाता।
होलिहार के गीतों पर है , ढोलक खूब ढमकता ,
अल्हड़ गोरी के पैरों में , पायल खूब झनकता।
शुक ,पिक ,खंजन का कलरव भी , मन को है भा जाता ,
" लो , वसंत आ गया ,पथिक रे ," संदेशा दे जाता।
( नोट : - लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका " प्राची प्रतिभा " मार्च 2016 में प्रकाशित )
No comments:
Post a Comment