Friday, February 13, 2015

लो , वसंत आ गया

 

चितवन से, जब कामदेव के , प्रीति - वाण चल जाता ,
दिग-दिगंत के रोम-रोम में ,मद वसंत छा जाता।

वन-उपवन ,उपवन-वन ,कानन ,पवन बाबरा फिरता ,
डार -डार पर फूल बिहँसते ,अलि गुंजन है करता।

झूल आम्र की डार , बौर भी , सौरभ खूब लुटाता ,
चैत मास, फूले महुआ ,जब , वन सुरभित हो जाता।

अमलतास,सेमल,पलास भी  , लहक- लहक सा जाता ,
मानो ,नवयौवना धरा के  , स्वागत में बिछ जाता।

पिक पुकार  में कोयलिया का , स्वर ,पंचम हो जाता ,
प्रत्युत्तर में ,छिप कर पिक भी ,उसको खूब रिझाता।

फूले सरसों ,खेत-खेत में , जब वसंत है आता ,
पनघट पर निहुरे गोरी का , यौवन है मदमाता।

होलिहार के गीतों पर है , ढोलक खूब ढमकता ,
अल्हड़ गोरी के पैरों में , पायल खूब झनकता।

शुक ,पिक ,खंजन का कलरव भी , मन को है भा जाता ,
" लो , वसंत आ गया ,पथिक रे ," संदेशा दे जाता।                                                                                            
   (   नोट  : -  लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका  " प्राची प्रतिभा "  मार्च 2016 में प्रकाशित  )




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