ज़िन्दगी कितनी आज सस्ती है ,
क़ातिलों की जहाँ पे बस्ती है ,
ख़ौफ़ भी इनसे हैं डरा करते ,
मौत की रूह काँप जाती है।
ऱोज बनते हैं ,तोड़े जाते हैं ,
घऱ अमीरों के ऐसे होते हैं ,
न पूछ हाल मुफ़लिसों का,
खुले आसमां में सोते हैं।
घऱ चिराग़ों रौशनी पाते ,
घऱ के आँगन इन्हीं से हैं छाजते ,
रखना महफूज़ बद्हवाओं से ,
घर चिराग़ों से भी जला करते।
गो कि वे अपने ही पड़ोसी हैं ,
बंद अपने दरों में रहते हैं ,
यूँ भी ख़ामोश ना रहा कीजै ,
वक़्त की ये बड़ी ज़रूरत है।
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