Friday, October 31, 2014

एक ग़ज़ल


ज़िन्दगी  कितनी आज सस्ती है ,
क़ातिलों की  जहाँ पे बस्ती है ,
ख़ौफ़ भी इनसे हैं डरा करते ,
मौत की रूह काँप जाती है।

ऱोज बनते हैं ,तोड़े जाते हैं ,
घऱ अमीरों के ऐसे होते हैं ,
न पूछ हाल मुफ़लिसों का,
खुले आसमां में सोते हैं।

घऱ चिराग़ों  रौशनी पाते ,
घऱ के आँगन इन्हीं से हैं छाजते ,
रखना महफूज़ बद्हवाओं से ,
घर चिराग़ों से भी जला करते।

गो कि वे अपने ही पड़ोसी हैं ,
बंद अपने दरों में रहते हैं ,
यूँ भी ख़ामोश ना रहा कीजै ,
वक़्त की ये बड़ी ज़रूरत है।


 

No comments:

Post a Comment