ईश ने जब यह सृष्टि रची ,
जीने के साधन रच डाले ,
पर्वत-नदियाँ झरनों के संग ,
मनभावन प्रकृति रच डाले।
शुद्ध हवा में सांस ले सकें ,
हरे-भरे कानन रच डाले,
सभी स्वस्थ्य हों ,सभी सुखी हों,
नदियों में मीठे जल डाले।
उसकी इस सुन्दर सृष्टि को ,
प्रदूषित हमने कर डाले ,
अपने-अपने स्वार्थ की खातिर ,
धरती तहस-नहस कर डाले।
तोड़ पहाड़ों की छाती को ,
द्वार मौत के हमने खोले ,
नदियों के मुख बांध-बांध कर ,
विभीषिका के पथ हैं खोले।
किया विकास बहुत ही हमने ,
कल और कारखाने खोले ,
धुआँ भरा संसार रचा कर
दरवाजे विनाश के खोले।
हरे-भरे पेड़ों को काट कर ,
कंकड़-महल खड़े कर डाले ,
लगी सूखने नदियाँ हैं अब ,
सोये हैं हो कर मतवाले।
पर्वत-राज हिमालय ने तब ,
कहर स्वर्ग पर बरपा डाले ,
रूप बदल कर नदियों ने भी ,
जल-प्लावित जन्नत कर डाले।
हाहाकार मचा है जग में ,
त्राहि-त्राहि हर ओर मची है ,
चीख-पुकार, रुदन-क्रंदन से ,
कोई नहीं बचाने वाले।
भीषण औ विकराल लहर ने ,
होटल-महल सभी धो डाले ,
आज प्रकृति ने छेड़-छाड़ के ,
इसके सबक हमें दे डाले।
अब भी अगर नहीं संभले तो ,
अपनी मन की करने वाले ,
नदियाँ - धरती सूख जायेंगी ,
सूरज कुपित हैं होने वाले।
खाली न हो जाए धरती ,
हमको इसे बचाना होगा ,
जीवित रहे संतान हमारी ,
हमको पेड़ लगाना होगा।
इससे पहले , हम कुछ खोयें ,
हम को अलख जगाना होगा ,
बची रहे ये धरा हमारी ,
पर्यावरण बचाना होगा।
----- ( प्रकाशित )
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