Saturday, September 27, 2014

मैं हूँ मृदुल नदी की धारा

मैं हूँ मृदुल नदी की धारा ,
तू पर्वत का पत्थर ठहरा ,
सदा उमग में चूर रहे तुम ,
संवेदन से दूर रहे तुम।

पर जब छोड़ चले जाओगे ,
मुझको याद बहुत आओगे ,
नहीं सामने पाकर मुझको ,
तुम भी मुझ को याद करोगे।

जाने कितनी बेर लड़े हैं ,
फिर भी  हम में मेल रहे हैं ,
जीवन के ऊबट से पथ पर,
हम तुम दोनों साथ रहे हैं।

हम थे ईंट , कहाँ के रोड़ा ,
तुम थे पत्थर निपट ही पोढ़ा ,
पत्थर से भी क्या टकराना ,
यही सोच कर हार था माना।

रही शिकायत अगर कोई तो ,
मन में ही सब गोय लिया ।
मिलन की खुशियाँ कम न होवे ,
मन के मैल को धोय लिया ।

जीवन पथ पर कितने काँटे ,
आओ मिल कर इन्हें हटायें ,
फूल ख़ुशी के मिल कर बाँटे ,
इन खुशियों से मन महकायें।

बड़े-बड़े दुःख को भूलो तुम ,
छोटी-छोटी ख़ुशी संजो लो ,
जीवन कितना मधुर सरस है ,
जीवन को जी भर कर जी लो।




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