जब अपना ही हाथ देने लगा दर्द ,
बन कर नासूर ,
हमने अपना ही हाथ काट दिया ज़नाब ,
हाथ कटने का दर्द और मलाल तो होता है ,
पर टूटी हुई माला , टूटे हुए ख़्वाब , और
कटे हाथ नहीं जुड़ते।
,
विजय कुमार सिन्हा "तरुण" की काव्य रचनाएँ.
जब अपना ही हाथ देने लगा दर्द ,
बन कर नासूर ,
हमने अपना ही हाथ काट दिया ज़नाब ,
हाथ कटने का दर्द और मलाल तो होता है ,
पर टूटी हुई माला , टूटे हुए ख़्वाब , और
कटे हाथ नहीं जुड़ते।
,
ऐसा नहीं, कि कभी ,
मेरी आँख से आँसू न टपका हो ,
ये और बात है -
लोग महसूस नहीं करते ,
और ,
ऐसा भी नहीं , कि ,
मैं कोई अकेला ही हूँ
इस जहान में ,
आप भी हैं - और आप भी ,
ये भी हैं और वो भी हैं,
बस सभी के चेहरे पर
मुखौटे हैं......
सच कह , तो बताना ,
और ,
चुपके - चुपके,आँसू बहाना .....
नहीं, नहीं ,
मेरा मतलब , आपका दिल
दुखाने का नहीं है ,
पर , जो सत्य है ,
वही तो कहा है मैंने .......
राज की बात किसी से ना कहना ,
औरों के दिल की छोड़ ,
अपने दिल की किताब पढ़ना ,
होंगे ,
बहुत किस्से ,
कहीं उदासी के , कहीं ग़म ,
कहीं तन्हाई के ,
मगर , उन्हीं में से ,
एक पन्ना , ख़ुशी के भी होंगे।
ये मत कहना -
ज़माने ने क्या दिया मुझको !,
बिखरे पड़े हैं ,
अनगिनत , मोती, हीरे - जवाहरात ,
अनगिनत कंकड़ - पत्थर ,
हर जगह ,
यह तुम जानो ,
तुम क्या चुनते हो .........
-- विजय
1. जब भी मिला करो ,
मुस्कुरा कर मिला करो ,
न जाने कौन सा पल ,
जिंदगी का आखिरी पल हो।
----- विजय
2. वो बहुत मुस्कुराते हैं ,
ना जाने कौन सा दर्द छुपाते हैं !
---विजय
3. अक्सर , वो बहुत उदास रहते हैं ,
ना जाने , किस गम में डूबे रहते हैं !
-----विजय
4. प्रेम में जीतना कैसा !
जीत तो वहाँ है ,
जहां प्रेम नहीं है ,
जहाँ प्रेम है ,
वहाँ , हारना ही जीत है।
--- विजय
5. बुढ़ापा , जीना सिखा देता है ,
क्योकि ,
वह सहना सिखा देता है।
विजय ------
6. मौसम , खराब है , घर में बैठिये ,
आंधी के आसार हैं , छप्पर बचाइए।
आंधी भी फ़ना होगी , आफ़त भी छँटेगी ,
होगा साफ आसमां , धरती भी हँसेगी ,
हर कोर - कोर , पोर - पोर ,
दीवाली मनेगी।
--विजय
बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे ,
गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा ,
जरा सी गरम हवा चली नहीं , कि ,
मुरझा जाते हैं , या ,
फिर बिखर जाते हैं बच्चे।
जरा , इन्हें , प्यार से पुकारो तो !
सीने से लग जाते हैं बच्चे ,
उड़ेल देते हैं
अपना सारा प्यार ,
बिना भेद - भाव ,
ऊँच - नीच को नहीं जानते ,
जात - पात को नहीं जानते ,
जानते हैं -
बस , केवल प्यार।
इन्हें प्यार से सींचों ,
खिलने दो इन्हें ,
रचने दो इन्हें
अपना एक नया संसार ,
उड़ने दो इन्हें ,
तितलियों के संग ,
तितलियों की तरह।
सुन्दर फूल हैं
बिल्कुल ,
डैफोडिल्स ( Daffodils ) की तरह ,
बहुत नाजुक होते हैं बच्चे
गुलाब की पंखुड़ियों से से भी ज्यादा ......
इन्सानों की बस्ती में ,
गुलदार घुस आया ,
कुछ को उसने ,
गुलदार बनाया ,
कुछ को निवाला ,
फिर क्या था था !
देखते - देखते ,
इन्सानों की बस्ती ,
गुलदारों की बस्ती बन गई ,
हाँ ,
वह एक बूढ़ी औरत है ,
उसकी बांयी हाथ ,
उसके कमर पर है ,
उसकी दांयी हाथ में ,
एक सोटा है ,
गो , कि उसकी कमर ,
अभी झुकी नहीं है ,
वह अब भी ,
पहाड़ की मानिंद ,
सीधी खड़ी है ,
हाँ , चहरे पर झुर्रियां हैं ,
चहरे की झुर्रियों में ,
अनवरत संघर्षों का ,
इतिहास लिखा है ,
कोई पढ़ सके , तो पढ़े ,
काँपते हाथों की उंगलियां ,
ना जाने कितने संगमरमर ,
तराशे होंगे ,
कोई जान सके तो जाने ,
गड्ढे में दबी - धंसी इन आँखों ने ,
कितने वसंत और पतझड़
देखे होंगे ,
कोई ढूंढ सके , तो ढूंढे ,
और , इन काँपते पैरों ने ,
कितना लम्बा सफर ,
तय किया होगा ,
हिसाब लगा सको तो लगाओ ,
इनके सफेद रेशम सी बालों ने ,
कितने चाँद - सितारे सजाये होंगे ,
गिन सको तो , गिनो ,
फिर देखना तुम ,
तुम्हारी आँखें ,
जरूर नम जायेंगी ,
वह ' माँ ' है , माँ ,
तुम्हारी भी , मेरी भी ,
सब की ही ,
उसे रोटी की चाहत नहीं है ,
चाहत है तुम्हारे दो मीठे बोल की ,
उसे बैसाखी के सहारे की नहीं ,
तुम्हारे मजबूत ,
कन्धों के सहारे की जरूरत है ,
दे सको , तो , दे कर देखो ,
देखना ,
स्वर्ग यहीं उतर आयेगा ,
इसी धरा पर ,
तुम्हारे घर ,
तुम्हारे आँगन ,
तुम्हारे चाक - चौबारे ,
और ,
सब जगह , हर ओर , हर छोर .........
-- विजय सिन्हा " तरुण "
प्रकाशित - हलन्त , अंक अप्रैल 2023
रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना ,
हर घर - आँगन फूल खिलें ,
आम्र - कुञ्ज कोयलिया कुहके ,
वन -उपवन भी खूब खिलें ।
शीतल शीतल मंद बयार बहे नित ,
खग - खञ्जन उन्मुक्त उड़ें ,
पपिहा टेर लगाए , वन - वन ,
टेसू - बुराँस हर ओर खिलें।
सुरभित हो गमके दिग - दिगंत ,
चहके - बहके मरुत चले ,
भ्रमर करे गुँजन कलियों पर ,
हर दिल में नव प्यार पलें।
शुष्क ह्रदय के आँगन में भी ,
मानवता के फूल खिलें ,
भूल गये जो मानवता को ,
उनके दिल नवजोत जले।
छोटा सा है जीवन अपना ,
फिर पतझर आ जाना है ,
कटुता छोड़ें , नफ़रत भूलें ,
आओ हम सब गले मिलें।
पुरुष ने
स्त्री से कहा -
मैं श्रेष्ठ हूँ
स्त्री ने पूछा -
वह कैसे ?
पुरुष बोला -
मैं समन्दर की छाती
चीर सकता हूँ ,
आकाश लाँघ सकता हूँ ,
पहाड़ तोड़ सकता हूँ ,
युद्ध , कोई भी हो ,
जीत सकता हूँ ,
और ...
और क्या - स्त्री ने पूछा ?
मैं नदी मोड़ सकता हूँ ,
हवा का रुख बदल सकता हूँ ,
फौलादी हैं हमारी भुजायें ,
लोहे को भी तोड़ - मरोड़ सकता हूँ .........
स्त्री बोली -
चलो , तुम जीते ,
मैं हारी ,
किन्तु !
पुरुष को ,जन्म तो ,
एक स्त्री ही देती है !
पुरुष चुप हो गया .........
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
आज तुम्हारे दिल के आँगन ,खूब मची हलचल ,
चुपके-चुपके दिल रोया और आँखें पल ,हर -पल।
लाख छुपाया हँस-हँस करके ,तुमने दिल के ज़ख्म ,
कर गई चुगली मुझसे, तुम्हारी , सांसों की उथल-पुथल।
सुन सजनी मैं राग तुम्हारा , तुम हो रागिनी मेरी ,
तुम ही जीवन की खुशबू हो , तुम ही गीत - ग़ज़ल।
जब - जब मैंने अधरों पर है गीत नया कोई छेड़ा ,
आँखों के अँगना मेरे उतरी , एक परी चंचल।
भावुक मन है , कोमल तन है , मोहक छवि तुम्हारी ,
जैसे अभी - अभी खिला हो , ताल में पुष्प कमल।
चिकुर बादलों से निकला है , चंदा एक नवल ,
नीलकमल सी आँखें तुम्हारी , हिरणी सी चंचल।
बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था,
कशिश थी , पुकार था .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
जैसे, कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरणा ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....
विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि - 31 - 08 - 2022
प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022
सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है .......
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि :- 12. 03. 2021
तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना।
रचना तिथि - 19 -01 - 2021
वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022
ज़ुल्म की,हर हदों को लांघता,
आज के इन्सान को क्या हो गया ,
ईश ने तो,था बनाया आदमी ,
आदमी हैवान क्यों कर बन गया।
हो गई है चूक किस मुक़ाम पर,
इन्सानियत का खून क्यों कर हो गया ,
खून,काटो तन , तो सब का लाल है ,
क्या हुआ , जो आज विषधर हो गया।
जो यहाँ आया है , वह तो जायेगा
किस भ्रम में ,आदमी है खो गया।
-- विजय कुमार सिन्हा "तरुण"
जिन्दगी कभी इतनी बेबस हो जायेगी ,
सोचा ना था ,
धरती के स्वयंभू भगवान् भी सो जायेंगे ,
सोचा ना था ,
बाड़ ही खेत को खा जायेगा ,
सोचा ना था।
दिल के ज़ख्मों को
हम क्या गिनायें ,
एक हो तो कुछ बतायें ,
अपनों और गैरों ने ही नहीं ,
हवाओं ने भी
कुछ कम ज़ुल्म नहीं ढाये।
समन्दर चीखता रहा ,
लोग आनन्द उठाते रहे ,
किसी की चीख भी ,
किसी के लिये
आनन्द का पर्याय बन जाये !
इस दुनिया के भी
अजब तमाशे हैं ,
गिद्धों ने ययह बात , हमें
तरीके से समझाये .....
-विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
आज फिर हवाओं ने
आसमान में साजिस की ,
बादलों ने जमकर उत्पात मचाया ,
कहर ढाती बारिस में ,
आज, फिर ,
एक पेड़ धराशायी हो गया ,
यानि कि
मौत की नींद सो गया ,
परिंदों का आशियाना उजड़ गया ।
टूटे ,झुके, डालों पर ,
बैठी है चिड़िया ,गुमसुम , उदास ।
नये ठिकाने की तलाश
फिर से करनी होगी ,
फिर ,
एक नया आशियाना बनाना होगा।
पागल हवाओं को कैसे बतायें , कि
एक घरौंदा बनाने में ,
कितनी परेशानियाँ आती हैं , उफ़ ....
तमाम उम्र खप जाती है
तिनका - तिनका जोड़ने में।
---विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
प्रकाशित - नवम्बर -2022 ( हलन्त )