बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे ,
गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा ,
जरा सी गरम हवा चली नहीं , कि ,
मुरझा जाते हैं , या ,
फिर बिखर जाते हैं बच्चे।
जरा , इन्हें , प्यार से पुकारो तो !
सीने से लग जाते हैं बच्चे ,
उड़ेल देते हैं
अपना सारा प्यार ,
बिना भेद - भाव ,
ऊँच - नीच को नहीं जानते ,
जात - पात को नहीं जानते ,
जानते हैं -
बस , केवल प्यार।
इन्हें प्यार से सींचों ,
खिलने दो इन्हें ,
रचने दो इन्हें
अपना एक नया संसार ,
उड़ने दो इन्हें ,
तितलियों के संग ,
तितलियों की तरह।
सुन्दर फूल हैं
बिल्कुल ,
डैफोडिल्स ( Daffodils ) की तरह ,
बहुत नाजुक होते हैं बच्चे
गुलाब की पंखुड़ियों से से भी ज्यादा ......
काव्य मंजरी
विजय कुमार सिन्हा "तरुण" की काव्य रचनाएँ.
Thursday, September 14, 2023
बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे
Saturday, February 18, 2023
रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना
रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना ,
हर घर - आँगन फूल खिलें ,
आम्र - कुञ्ज कोयलिया कुहके ,
वन -उपवन भी खूब खिलें ।
शीतल शीतल मंद बयार बहे नित ,
खग - खञ्जन उन्मुक्त उड़ें ,
पपिहा टेर लगाए , वन - वन ,
टेसू - बुराँस हर ओर खिलें।
सुरभित हो गमके दिग - दिगंत ,
चहके - बहके मरुत चले ,
भ्रमर करे गुँजन कलियों पर ,
हर दिल में नव प्यार पलें।
शुष्क ह्रदय के आँगन में भी ,
मानवता के फूल खिलें ,
भूल गये जो मानवता को ,
उनके दिल नवजोत जले।
छोटा सा है जीवन अपना ,
फिर पतझर आ जाना है ,
कटुता छोड़ें , नफ़रत भूलें ,
आओ हम सब गले मिलें।
Thursday, November 17, 2022
स्त्री
पुरुष ने
स्त्री से कहा -
मैं श्रेष्ठ हूँ
स्त्री ने पूछा -
वह कैसे ?
पुरुष बोला -
मैं समन्दर की छाती
चीर सकता हूँ ,
आकाश लाँघ सकता हूँ ,
पहाड़ तोड़ सकता हूँ ,
युद्ध , कोई भी हो ,
जीत सकता हूँ ,
और ...
और क्या - स्त्री ने पूछा ?
मैं नदी मोड़ सकता हूँ ,
हवा का रुख बदल सकता हूँ ,
फौलादी हैं हमारी भुजायें ,
लोहे को भी तोड़ - मरोड़ सकता हूँ .........
स्त्री बोली -
चलो , तुम जीते ,
मैं हारी ,
किन्तु !
पुरुष को ,जन्म तो ,
एक स्त्री ही देती है !
पुरुष चुप हो गया .........
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
Thursday, October 20, 2022
एक परी चंचल
आज तुम्हारे दिल के आँगन ,खूब मची हलचल ,
चुपके-चुपके दिल रोया और आँखें पल ,हर -पल।
लाख छुपाया हँस-हँस करके ,तुमने दिल के ज़ख्म ,
कर गई चुगली मुझसे, तुम्हारी , सांसों की उथल-पुथल।
सुन सजनी मैं राग तुम्हारा , तुम हो रागिनी मेरी ,
तुम ही जीवन की खुशबू हो , तुम ही गीत - ग़ज़ल।
जब - जब मैंने अधरों पर है गीत नया कोई छेड़ा ,
आँखों के अँगना मेरे उतरी , एक परी चंचल।
भावुक मन है , कोमल तन है , मोहक छवि तुम्हारी ,
जैसे अभी - अभी खिला हो , ताल में पुष्प कमल।
चिकुर बादलों से निकला है , चंदा एक नवल ,
नीलकमल सी आँखें तुम्हारी , हिरणी सी चंचल।
Wednesday, August 31, 2022
"मेरा बचपन लौट आया है "
बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था,
कशिश थी , पुकार था .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
जैसे, कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरणा ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....
विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि - 31 - 08 - 2022
प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022
Tuesday, August 30, 2022
डाल पर बैठा परिंदा
सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है .......
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि :- 12. 03. 2021
Thursday, August 25, 2022
तपता हुआ शहर है
तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना।
रचना तिथि - 19 -01 - 2021
Wednesday, August 17, 2022
डॉक्टर माँ का बेटा
वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022
Wednesday, July 27, 2022
आज के इन्सान को क्या हो गया
ज़ुल्म की,हर हदों को लांघता,
आज के इन्सान को क्या हो गया ,
ईश ने तो,था बनाया आदमी ,
आदमी हैवान क्यों कर बन गया।
हो गई है चूक किस मुक़ाम पर,
इन्सानियत का खून क्यों कर हो गया ,
खून,काटो तन , तो सब का लाल है ,
क्या हुआ , जो आज विषधर हो गया।
जो यहाँ आया है , वह तो जायेगा
किस भ्रम में ,आदमी है खो गया।
-- विजय कुमार सिन्हा "तरुण"
सोचा ना था
जिन्दगी कभी इतनी बेबस हो जायेगी ,
सोचा ना था ,
धरती के स्वयंभू भगवान् भी सो जायेंगे ,
सोचा ना था ,
बाड़ ही खेत को खा जायेगा ,
सोचा ना था।
Saturday, June 4, 2022
समन्दर की चीख
दिल के ज़ख्मों को
हम क्या गिनायें ,
एक हो तो कुछ बतायें ,
अपनों और गैरों ने ही नहीं ,
हवाओं ने भी
कुछ कम ज़ुल्म नहीं ढाये।
समन्दर चीखता रहा ,
लोग आनन्द उठाते रहे ,
किसी की चीख भी ,
किसी के लिये
आनन्द का पर्याय बन जाये !
इस दुनिया के भी
अजब तमाशे हैं ,
गिद्धों ने ययह बात , हमें
तरीके से समझाये .....
-विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
बारिस का कहर
आज फिर हवाओं ने
आसमान में साजिस की ,
बादलों ने जमकर उत्पात मचाया ,
कहर ढाती बारिस में ,
आज, फिर ,
एक पेड़ धराशायी हो गया ,
यानि कि
मौत की नींद सो गया ,
परिंदों का आशियाना उजड़ गया ।
टूटे ,झुके, डालों पर ,
बैठी है चिड़िया ,गुमसुम , उदास ।
नये ठिकाने की तलाश
फिर से करनी होगी ,
फिर ,
एक नया आशियाना बनाना होगा।
पागल हवाओं को कैसे बतायें , कि
एक घरौंदा बनाने में ,
कितनी परेशानियाँ आती हैं , उफ़ ....
तमाम उम्र खप जाती है
तिनका - तिनका जोड़ने में।
---विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
प्रकाशित - नवम्बर -2022 ( हलन्त )
Thursday, October 28, 2021
मेरा प्यार नहीं बदलेगा
ये मौसम बदल जायेगा , ये ऋतुएँ बदल जायेंगी ,
ये दिन , सप्ताह , महीना सब बदल जायेगा ,
सुनो , तुम गौर से सुनो , मेरा प्यार नहीं बदलेगा।
मैं सूरज हूँ , हाँ सूरज ,
तुम्हारी ठंढी हथेली पर ,
अपने गरम हथेली रख ,
तुम्हे प्यार का अहसास कराऊंगा।
मैं मौसम नहीं , जो बदल जाऊंगा ,
वक़्त बदल सकता है , बदल जायेगा ,
पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा।
हाँ , वक़्त के क्षुद्र बादल ,
मुझे कुछ देर के लिये ,
ढँक तो सकते हैं ,
पर तिरोहित नहीं कर सकते।
यह क्षुद्र बादल ,
मेरे तपिश में पिघल जायेगा ,
पर , मैं सच कहता हूँ ,
मेरा प्यार नहीं बदलेगा ,
नदी समन्दर बन सकती है ,
समन्दर नदी बन सकता है ,
सहरा में सैलाब बन सकता है ,
ये तारे टूट कर गिर सकते हैं ,
हवा प्रलय मचाती है मचा लेगा ,
पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा।
रचना तिथि- 15 -04 - 21
किसने नाव डुबोई
लहर -लहर नदिया की लहरें ,
पूछ रहीं हर कोर-कोर से ,
होकर अति बेचैन ,
नाव किसने है डुबोई ?
नाविक था मगरूर ,
नशे में था वह चूर ,
आंधी आई , तूफां आया ,
फिर भी वह तो चेत न पाया।
था उसको बहुत गुरूर ,
था मस्ती में भरपूर ,
जा बैठा मस्तूल के ऊपर ,
नाव गई वह डूब।
आंधी ने नहीं ,तूफां ने नहीं ,
ना लहरें , ना नदिया ,
था जिनके हाथों पतवार ,
नाव उसने ही डुबोई।
रचना तिथि - 07 -05 - 2021
Saturday, June 19, 2021
प्यार बाँटिये
बाँटना ही है अगर , तो प्यार बाँटिये ,
नफ़रतों की आग , हरगिज न बाँटिये।
यह आग है ,बस आग , करती न कोई फ़र्क़ ,
इस आग से मोहतरम , अपना घर बचाइये।
हम सब ही जल जायेंगे , कोई ना बचेगा ,
दिल में है गर जगह ,मुहब्बत सजाइये।
पास होकर भी हैं हमसब , दूर दूजे से ,
कर रहा मौसम इशारा , इसको जानिये।
घर कीजिये रौशन , अपना प्यार बाँट कर ,
हो सके , तो , प्यार का दीपक जलाइये।
-विजय कुमार सिन्हा "तरुण "
रचना तिथि :- 06 - 05 - 2021
Thursday, June 10, 2021
ये बचपन लौट कर नहीं आता
ले लो न साहब , एक गुब्बारा-
गुब्बारे बेचने वाले ने कहा ,
पिता के साथ चलता बच्चा
मचल पड़ा ,
पापा , गुब्बारे ले दो न ....
नहीं - मँहगे हैं ,
नहीं साहब , मँहगा नहीं है साहब ,
बस ,पाँच रुपये के ही तो हैं ,
पाँच रुपये ,
पाँच रुपये में क्या होता है साहब !
एक रोटी की कीमत ,
बच्चा फिर मचला -
पापा ले दो न ,
बच्चे का पिता आगे बढ़ गया ,
बच्चा मायूस हो गया।
यका - यक गुब्बारे वाला
सामने आ गया ,
बच्चे के हाथ में
एक गुब्बारा देते हुए बोला-
साहब मत देना पैसे ,
रोटी कहीं और खा लेंगे ,
बच्चे का दिल ना तोड़ेंगे ,
एक गुब्बारे लेकर
इसकी आँखों में
ख़ुशी की जो चमक दिखेगी ,
वह इस पाँच रुपये के गुब्बारे से
कहीं बहुत बड़ी है साहब ,
यह दुनिया की सब से बड़ी ,
अनमोल दौलत है ,ये बचपन
लौट कर नहीं आता साहब ,
ये बचपन लौट कर नहीं आता .........
रचना तिथि :- 07-06-2021
Thursday, June 3, 2021
रोटी
रोटी कब सस्ती हुई ?
रोटी कल्ह भी मँहगी थी ,
रोटी आज भी मँहगी है ,
सब काम -धंधा मंद ,
मेहनत - मजूरी बन्द ,
जो चार पैसे कमा लाते थे ,
सब बन्द ,
ऐसे में रोटी हाथ से
बहुत दूर चली जाती है ,
रोटी , गोल - गोल रोटी ,
लहक कर कभी चाँद बन जाती ,
कभी सूरज बन जाती ,
कभी सितारों में टाँक दी जाती ,
हाथ से दूर , बहुत दूर चली जाती .......
माँ बच्चे से कहती -
सो जा मेरे लाल , सो जा ,
चाँद तोड़ लाने की जिद्द ,
बच्चे माँ से करते ,
ला दो न माँ ,
तोड़ कर चाँद ,
खा लेंगे रोटी !
माँ क्या बताये !
कहती , सो जा मेरे लाल ,
रात चाँद आयेगा ,
तुम्हारे सपनों में ,
तुम्हे रोटी दे जायेगा ,
बच्चा , फिर एक बार मचलता ,
फिर सो जाता .......
माँ सोचती ,
सबको रोटी मिलेगी ,
आश्वासन तो मिला ,
रोटी नहीं मिली ,
जो कुछ मिला ,
वह नून भर भी तो नहीं था ,
वह भी बहुत दिन हो गये ,
इसी खयाल में रात बीत गई ,
सुबह देर तक सोई रही ,
जब आँख खुली ,
बाहर डुगडुगी पिट रही थी ,
आज कैम्प में ,
रोटी बाँटी जायेगी ,
जिसे चाहिये , आ जाना ,
उसने पलट कर देखा -
बच्चा सो रहा था ,
निश्छल , निश्चल ,
उसने बच्चे को हिलाया ,
पर ,यह क्या !
वह सन्न रह गई ,
बच्चा रोटी के लिये
चाँद पर चला गया ,
सितारों के बीच चला गया ,
सूरज के पास चला गया ,
नहीं , अब लौट कर नहीं आयेगा ,
यों ही डुगडुगी पिटती रहेगी ,
यों ही ,
रोटी पर खेल होता रहेगा ,
हर काल में ,
यों ही ,
रोटी लुढ़क कर
चाँद पर चली जायेगी ......
रोटी कब सस्ती हुई ?
रोटी , कल्ह भी मँहगी थी ,
रोटी आज भी मँहगी है .........
रोटी आज भी मँहगी है .......
रोटी ! रोटी ! रोटी !
रचना तिथि - 12.04.2021
Sunday, March 28, 2021
फागुन का उपहार
आया है रस -रंग ले , होली का त्यौहार ,
विविध रंगों का मेल है ,फागुन का उपहार ,
प्रीत और अनुराग का , बरसै आज फुहार ,
रंग प्यार का घोल कर , करें आज बौछार ,
ऐसो रंग को डारियो , खुशियां मिले हजार।
विजय कुमार सिन्हा " तरुण "