Monday, July 14, 2025

एक सच यह भी

राज की बात किसी से ना कहना ,
औरों के दिल की छोड़ ,
अपने दिल की किताब पढ़ना ,
होंगे ,
बहुत किस्से ,
कहीं उदासी के , कहीं ग़म ,
कहीं तन्हाई के ,
मगर ,  उन्हीं में से ,
एक पन्ना , ख़ुशी के भी होंगे। 

ये मत कहना -
ज़माने ने क्या दिया मुझको !,
बिखरे पड़े हैं ,
अनगिनत , मोती, हीरे - जवाहरात ,
अनगिनत कंकड़ - पत्थर ,
हर जगह ,
यह तुम जानो ,
तुम क्या चुनते हो  ......... 
               -- विजय 

शब्दों के जंगल से

1.  जब भी मिला करो ,
     मुस्कुरा कर मिला करो ,
     न जाने कौन सा पल ,
      जिंदगी का आखिरी पल हो।
                            ----- विजय 

2.  वो बहुत मुस्कुराते हैं ,
      ना जाने कौन सा दर्द छुपाते हैं ! 
                                        ---विजय 

3.   अक्सर , वो बहुत उदास रहते हैं ,
      ना जाने , किस गम में डूबे रहते हैं !   
                                           -----विजय 

4.    प्रेम में जीतना कैसा !
       जीत तो वहाँ है ,
        जहां प्रेम नहीं है ,
        जहाँ प्रेम है ,
        वहाँ , हारना ही जीत है।   
                                --- विजय 

5.     बुढ़ापा , जीना सिखा देता है ,
         क्योकि ,
       वह सहना सिखा देता है।   
                                     विजय ------

6.      मौसम , खराब है , घर में बैठिये ,
        आंधी के आसार हैं , छप्पर बचाइए।
        आंधी भी फ़ना होगी , आफ़त भी छँटेगी ,
         होगा साफ आसमां , धरती भी हँसेगी ,
         हर कोर - कोर , पोर - पोर ,
         दीवाली  मनेगी।   
                                 --विजय 


Thursday, September 14, 2023

बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे

बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे ,
गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा ,
जरा सी गरम हवा चली नहीं , कि ,
मुरझा जाते हैं , या ,
फिर बिखर जाते हैं बच्चे।
जरा , इन्हें , प्यार से पुकारो तो !
सीने से लग जाते हैं बच्चे ,
उड़ेल देते हैं
अपना सारा प्यार ,
बिना भेद - भाव ,
ऊँच - नीच को नहीं जानते ,
जात - पात को नहीं जानते ,
जानते हैं -
बस , केवल प्यार।
इन्हें प्यार से सींचों ,
खिलने दो इन्हें ,
रचने दो इन्हें
अपना एक नया संसार ,
उड़ने दो इन्हें ,
तितलियों के संग ,
तितलियों की तरह।
सुन्दर फूल हैं
बिल्कुल ,
डैफोडिल्स  ( Daffodils ) की तरह ,
बहुत नाजुक होते हैं बच्चे
गुलाब की पंखुड़ियों से से भी ज्यादा   ...... 

Wednesday, April 12, 2023

गुलदारों की बस्ती

  इन्सानों की बस्ती में ,

  गुलदार घुस आया ,

कुछ को उसने ,

गुलदार बनाया ,

कुछ को  निवाला ,

फिर क्या था था !

देखते - देखते ,

इन्सानों की बस्ती ,

गुलदारों की बस्ती बन गई ,

Wednesday, March 15, 2023

बूढ़ी औरत

हाँ ,
वह एक बूढ़ी औरत है ,
उसकी बांयी हाथ ,
उसके कमर पर है ,
उसकी दांयी हाथ में ,
एक सोटा है ,
गो , कि उसकी कमर ,
अभी झुकी नहीं है ,
वह अब भी ,
पहाड़ की मानिंद ,
सीधी खड़ी है ,
हाँ , चहरे पर झुर्रियां हैं ,
चहरे की झुर्रियों में ,
अनवरत संघर्षों का ,
इतिहास लिखा है ,
कोई पढ़ सके , तो पढ़े ,
काँपते हाथों की उंगलियां ,
ना जाने कितने संगमरमर ,
तराशे होंगे ,
कोई जान सके तो जाने ,
गड्ढे में दबी - धंसी इन आँखों ने ,
कितने वसंत और पतझड़
देखे होंगे ,
कोई ढूंढ सके , तो ढूंढे ,
और , इन काँपते पैरों ने ,
कितना लम्बा सफर ,
तय किया होगा ,
हिसाब लगा सको तो लगाओ ,
इनके सफेद रेशम सी बालों ने ,
कितने चाँद - सितारे सजाये होंगे ,
गिन सको तो , गिनो ,
फिर देखना तुम ,
तुम्हारी आँखें ,
जरूर नम जायेंगी ,
वह  ' माँ ' है , माँ ,
तुम्हारी भी , मेरी भी ,
सब की ही ,
उसे रोटी की चाहत नहीं है ,
चाहत है तुम्हारे दो मीठे बोल  की ,
उसे बैसाखी के सहारे की नहीं ,
तुम्हारे मजबूत ,
कन्धों के सहारे की जरूरत है ,
दे सको ,  तो , दे कर देखो ,
देखना ,
स्वर्ग  यहीं उतर आयेगा ,
इसी धरा पर ,
तुम्हारे घर ,
तुम्हारे आँगन ,
तुम्हारे चाक - चौबारे ,
और ,
सब जगह , हर ओर , हर छोर ......... 

-- विजय सिन्हा " तरुण "   

प्रकाशित - हलन्त , अंक अप्रैल 2023 



Saturday, February 18, 2023

रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना

रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना ,
हर घर - आँगन फूल खिलें ,
आम्र - कुञ्ज कोयलिया कुहके ,
वन -उपवन  भी खूब खिलें । 

शीतल शीतल मंद  बयार  बहे नित ,
खग - खञ्जन उन्मुक्त उड़ें ,
पपिहा टेर लगाए , वन - वन ,
टेसू - बुराँस हर ओर खिलें। 

सुरभित हो गमके दिग - दिगंत ,
चहके - बहके मरुत चले ,
भ्रमर करे गुँजन कलियों पर ,
हर दिल में नव प्यार पलें।

शुष्क ह्रदय के आँगन में भी ,
मानवता के फूल खिलें  ,
भूल गये जो  मानवता को ,
उनके दिल नवजोत जले। 

छोटा सा है जीवन अपना ,
फिर पतझर आ जाना है ,
कटुता छोड़ें , नफ़रत भूलें ,
आओ हम सब गले मिलें। 


Thursday, November 17, 2022

स्त्री

पुरुष ने
स्त्री से कहा -                                                                                                                                           
मैं श्रेष्ठ हूँ
स्त्री ने  पूछा  -
वह कैसे ?
पुरुष बोला -
मैं समन्दर की छाती
चीर सकता हूँ ,
आकाश लाँघ सकता हूँ ,
पहाड़ तोड़ सकता हूँ ,
युद्ध ,  कोई  भी हो ,
जीत सकता हूँ ,
और  ...
और क्या - स्त्री  ने पूछा ?
मैं नदी मोड़ सकता हूँ ,
हवा का रुख बदल सकता हूँ ,
फौलादी हैं हमारी भुजायें ,
लोहे को भी तोड़ - मरोड़ सकता हूँ  .........
स्त्री बोली -
चलो , तुम जीते ,
मैं हारी ,
किन्तु !
पुरुष को ,जन्म तो ,
एक स्त्री ही देती है !
पुरुष चुप हो गया  .........
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण " 

Thursday, October 20, 2022

एक परी चंचल

आज तुम्हारे दिल के आँगन ,खूब मची हलचल ,
चुपके-चुपके दिल रोया और आँखें पल ,हर -पल। 

लाख छुपाया हँस-हँस करके ,तुमने दिल के ज़ख्म ,
कर गई चुगली मुझसे, तुम्हारी , सांसों की उथल-पुथल। 

सुन सजनी मैं राग तुम्हारा , तुम हो रागिनी मेरी ,
तुम ही जीवन की खुशबू हो , तुम ही गीत - ग़ज़ल। 

जब - जब मैंने अधरों पर है गीत नया कोई छेड़ा ,
आँखों के अँगना मेरे  उतरी , एक परी चंचल। 

भावुक मन है , कोमल तन है , मोहक छवि तुम्हारी ,
जैसे अभी - अभी खिला हो , ताल में पुष्प कमल। 

चिकुर बादलों से निकला है , चंदा एक नवल ,
नीलकमल सी आँखें तुम्हारी , हिरणी सी चंचल।

Wednesday, August 31, 2022

"मेरा बचपन लौट आया है "

बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था, 
कशिश थी , पुकार था  .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
जैसे, कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती  है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा  .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी  नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरणा  ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले  लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है  ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि  - 31 - 08 - 2022 

प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022 

Tuesday, August 30, 2022

डाल पर बैठा परिंदा

सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर  हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो  , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी  ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है  .......

- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
   रचना तिथि :- 12. 03. 2021

Thursday, August 25, 2022

तपता हुआ शहर है

तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना। 

रचना तिथि -  19 -01 - 2021 

Wednesday, August 17, 2022

डॉक्टर माँ का बेटा

 वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है  ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022

Sunday, August 7, 2022

Wednesday, July 27, 2022

आज के इन्सान को क्या हो गया

ज़ुल्म की,हर हदों को लांघता,
आज के इन्सान को क्या हो गया ,
ईश ने तो,था बनाया आदमी ,
आदमी हैवान क्यों कर बन गया।
हो गई है चूक किस मुक़ाम पर,
इन्सानियत का खून क्यों कर हो गया ,
खून,काटो तन , तो सब का लाल है ,
क्या हुआ , जो आज विषधर हो गया।
जो यहाँ आया है , वह तो जायेगा
किस भ्रम में ,आदमी है खो गया।
-- विजय कुमार सिन्हा "तरुण"


योद्धा

 कोई यूँ ही
सिकन्दर सा योद्धा नहीं बन जाता ,
योद्धा बनने से पहले
लाशों पर चलना पड़ता है।

सोचा ना था

जिन्दगी कभी इतनी बेबस हो जायेगी ,
सोचा ना था ,
धरती के स्वयंभू भगवान् भी सो जायेंगे ,
सोचा ना था ,
बाड़ ही खेत को खा जायेगा ,
सोचा ना था।

Saturday, June 4, 2022

समन्दर की चीख

दिल के ज़ख्मों को
हम क्या गिनायें ,
एक हो तो कुछ बतायें ,
अपनों और गैरों ने ही नहीं ,
हवाओं ने भी
कुछ कम ज़ुल्म नहीं ढाये।
समन्दर चीखता रहा ,
लोग आनन्द उठाते रहे ,
किसी की चीख भी ,
किसी के लिये
आनन्द का पर्याय बन जाये !
इस दुनिया के भी
अजब तमाशे हैं ,
गिद्धों ने ययह बात , हमें
तरीके से समझाये   .....
-विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

बारिस का कहर

आज फिर हवाओं ने
आसमान में साजिस की ,
बादलों ने जमकर उत्पात मचाया ,
कहर ढाती बारिस में ,
आज, फिर ,
एक पेड़ धराशायी हो गया ,
यानि कि
मौत की नींद सो गया ,
परिंदों का आशियाना उजड़ गया ।
टूटे ,झुके, डालों पर ,
बैठी है चिड़िया ,गुमसुम , उदास ।
नये ठिकाने की तलाश
फिर से करनी होगी ,
फिर ,
एक नया आशियाना बनाना होगा।
पागल हवाओं को कैसे बतायें , कि
एक घरौंदा बनाने में ,
कितनी परेशानियाँ आती हैं , उफ़ .... 
तमाम उम्र खप जाती है
तिनका - तिनका जोड़ने में। 

---विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

प्रकाशित - नवम्बर -2022 ( हलन्त )

Thursday, October 28, 2021

मेरा प्यार नहीं बदलेगा

ये मौसम बदल जायेगा , ये ऋतुएँ बदल जायेंगी ,

ये दिन , सप्ताह , महीना सब बदल जायेगा ,

सुनो , तुम गौर से सुनो , मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

मैं सूरज हूँ , हाँ सूरज ,

तुम्हारी ठंढी हथेली पर ,

अपने गरम हथेली रख ,

तुम्हे प्यार का अहसास कराऊंगा।

मैं मौसम नहीं , जो बदल जाऊंगा ,

वक़्त बदल सकता है , बदल जायेगा ,

पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

हाँ , वक़्त के क्षुद्र बादल ,

मुझे कुछ देर के लिये ,

ढँक तो सकते हैं ,

पर तिरोहित नहीं कर सकते। 

यह क्षुद्र बादल ,

मेरे तपिश में पिघल जायेगा ,

पर , मैं सच कहता हूँ ,

मेरा प्यार नहीं बदलेगा ,

नदी समन्दर बन सकती है ,

समन्दर नदी बन सकता है , 

सहरा में सैलाब बन सकता है ,

ये तारे टूट कर गिर सकते हैं ,

हवा प्रलय मचाती है  मचा लेगा ,

पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

रचना तिथि- 15 -04 - 21

किसने नाव डुबोई

लहर -लहर नदिया की लहरें ,

पूछ रहीं हर कोर-कोर से ,

होकर अति बेचैन ,

नाव किसने है डुबोई  ?

नाविक था मगरूर ,

नशे में था वह चूर ,

आंधी आई , तूफां आया ,

फिर भी वह तो चेत न पाया।

था उसको बहुत गुरूर , 

था मस्ती में भरपूर ,

जा बैठा मस्तूल के ऊपर ,

नाव गई वह डूब।

आंधी ने नहीं ,तूफां ने नहीं ,

ना लहरें , ना नदिया ,

था जिनके हाथों पतवार ,

नाव उसने ही डुबोई। 

रचना तिथि - 07 -05 - 2021