Thursday, September 14, 2023

बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे

बहुत नाजुक होते हैं , बच्चे ,
गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा ,
जरा सी गरम हवा चली नहीं , कि ,
मुरझा जाते हैं , या ,
फिर बिखर जाते हैं बच्चे।
जरा , इन्हें , प्यार से पुकारो तो !
सीने से लग जाते हैं बच्चे ,
उड़ेल देते हैं
अपना सारा प्यार ,
बिना भेद - भाव ,
ऊँच - नीच को नहीं जानते ,
जात - पात को नहीं जानते ,
जानते हैं -
बस , केवल प्यार।
इन्हें प्यार से सींचों ,
खिलने दो इन्हें ,
रचने दो इन्हें
अपना एक नया संसार ,
उड़ने दो इन्हें ,
तितलियों के संग ,
तितलियों की तरह।
सुन्दर फूल हैं
बिल्कुल ,
डैफोडिल्स  ( Daffodils ) की तरह ,
बहुत नाजुक होते हैं बच्चे
गुलाब की पंखुड़ियों से से भी ज्यादा   ...... 

Saturday, February 18, 2023

रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना

रे वसंत ! तुम ऐसे आना आना ,
हर घर - आँगन फूल खिलें ,
आम्र - कुञ्ज कोयलिया कुहके ,
वन -उपवन  भी खूब खिलें । 

शीतल शीतल मंद  बयार  बहे नित ,
खग - खञ्जन उन्मुक्त उड़ें ,
पपिहा टेर लगाए , वन - वन ,
टेसू - बुराँस हर ओर खिलें। 

सुरभित हो गमके दिग - दिगंत ,
चहके - बहके मरुत चले ,
भ्रमर करे गुँजन कलियों पर ,
हर दिल में नव प्यार पलें।

शुष्क ह्रदय के आँगन में भी ,
मानवता के फूल खिलें  ,
भूल गये जो  मानवता को ,
उनके दिल नवजोत जले। 

छोटा सा है जीवन अपना ,
फिर पतझर आ जाना है ,
कटुता छोड़ें , नफ़रत भूलें ,
आओ हम सब गले मिलें। 


Thursday, November 17, 2022

स्त्री

पुरुष ने
स्त्री से कहा -                                                                                                                                           
मैं श्रेष्ठ हूँ
स्त्री ने  पूछा  -
वह कैसे ?
पुरुष बोला -
मैं समन्दर की छाती
चीर सकता हूँ ,
आकाश लाँघ सकता हूँ ,
पहाड़ तोड़ सकता हूँ ,
युद्ध ,  कोई  भी हो ,
जीत सकता हूँ ,
और  ...
और क्या - स्त्री  ने पूछा ?
मैं नदी मोड़ सकता हूँ ,
हवा का रुख बदल सकता हूँ ,
फौलादी हैं हमारी भुजायें ,
लोहे को भी तोड़ - मरोड़ सकता हूँ  .........
स्त्री बोली -
चलो , तुम जीते ,
मैं हारी ,
किन्तु !
पुरुष को ,जन्म तो ,
एक स्त्री ही देती है !
पुरुष चुप हो गया  .........
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण " 

Thursday, October 20, 2022

एक परी चंचल

आज तुम्हारे दिल के आँगन ,खूब मची हलचल ,
चुपके-चुपके दिल रोया और आँखें पल ,हर -पल। 

लाख छुपाया हँस-हँस करके ,तुमने दिल के ज़ख्म ,
कर गई चुगली मुझसे, तुम्हारी , सांसों की उथल-पुथल। 

सुन सजनी मैं राग तुम्हारा , तुम हो रागिनी मेरी ,
तुम ही जीवन की खुशबू हो , तुम ही गीत - ग़ज़ल। 

जब - जब मैंने अधरों पर है गीत नया कोई छेड़ा ,
आँखों के अँगना मेरे  उतरी , एक परी चंचल। 

भावुक मन है , कोमल तन है , मोहक छवि तुम्हारी ,
जैसे अभी - अभी खिला हो , ताल में पुष्प कमल। 

चिकुर बादलों से निकला है , चंदा एक नवल ,
नीलकमल सी आँखें तुम्हारी , हिरणी सी चंचल।

Wednesday, August 31, 2022

"मेरा बचपन लौट आया है "

बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था, 
कशिश थी , पुकार था  .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती  है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा  .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी  नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरण ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले  लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है  ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि  - 31 - 08 - 2022 

प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022 

Tuesday, August 30, 2022

डाल पर बैठा परिंदा

सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर  हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो  , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी  ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है  .......

- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
   रचना तिथि :- 12. 03. 2021

Thursday, August 25, 2022

तपता हुआ शहर है

तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना। 

रचना तिथि -  19 -01 - 2021 

Wednesday, August 17, 2022

डॉक्टर माँ का बेटा

 वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है  ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022

Sunday, August 7, 2022

Wednesday, July 27, 2022

आज के इन्सान को क्या हो गया

ज़ुल्म की,हर हदों को लांघता,
आज के इन्सान को क्या हो गया ,
ईश ने तो,था बनाया आदमी ,
आदमी हैवान क्यों कर बन गया।
हो गई है चूक किस मुक़ाम पर,
इन्सानियत का खून क्यों कर हो गया ,
खून,काटो तन , तो सब का लाल है ,
क्या हुआ , जो आज विषधर हो गया।
जो यहाँ आया है , वह तो जायेगा
किस भ्रम में ,आदमी है खो गया।
-- विजय कुमार सिन्हा "तरुण"


योद्धा

 कोई यूँ ही
सिकन्दर सा योद्धा नहीं बन जाता ,
योद्धा बनने से पहले
लाशों पर चलना पड़ता है।

सोचा ना था

जिन्दगी कभी इतनी बेबस हो जायेगी ,
सोचा ना था ,
धरती के स्वयंभू भगवान् भी सो जायेंगे ,
सोचा ना था ,
बाड़ ही खेत को खा जायेगा ,
सोचा ना था।

Saturday, June 4, 2022

समन्दर की चीख

दिल के ज़ख्मों को
हम क्या गिनायें ,
एक हो तो कुछ बतायें ,
अपनों और गैरों ने ही नहीं ,
हवाओं ने भी
कुछ कम ज़ुल्म नहीं ढाये।
समन्दर चीखता रहा ,
लोग आनन्द उठाते रहे ,
किसी की चीख भी ,
किसी के लिये
आनन्द का पर्याय बन जाये !
इस दुनिया के भी
अजब तमाशे हैं ,
गिद्धों ने ययह बात , हमें
तरीके से समझाये   .....
-विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

बारिस का कहर

आज फिर हवाओं ने
आसमान में साजिस की ,
बादलों ने जमकर उत्पात मचाया ,
कहर ढाती बारिस में ,
आज, फिर ,
एक पेड़ धराशायी हो गया ,
यानि कि
मौत की नींद सो गया ,
परिंदों का आशियाना उजड़ गया ।
टूटे ,झुके, डालों पर ,
बैठी है चिड़िया ,गुमसुम , उदास ।
नये ठिकाने की तलाश
फिर से करनी होगी ,
फिर ,
एक नया आशियाना बनाना होगा।
पागल हवाओं को कैसे बतायें , कि
एक घरौंदा बनाने में ,
कितनी परेशानियाँ आती हैं , उफ़ .... 
तमाम उम्र खप जाती है
तिनका - तिनका जोड़ने में। 

---विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

प्रकाशित - नवम्बर -2022 ( हलन्त )

Thursday, October 28, 2021

मेरा प्यार नहीं बदलेगा

ये मौसम बदल जायेगा , ये ऋतुएँ बदल जायेंगी ,

ये दिन , सप्ताह , महीना सब बदल जायेगा ,

सुनो , तुम गौर से सुनो , मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

मैं सूरज हूँ , हाँ सूरज ,

तुम्हारी ठंढी हथेली पर ,

अपने गरम हथेली रख ,

तुम्हे प्यार का अहसास कराऊंगा।

मैं मौसम नहीं , जो बदल जाऊंगा ,

वक़्त बदल सकता है , बदल जायेगा ,

पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

हाँ , वक़्त के क्षुद्र बादल ,

मुझे कुछ देर के लिये ,

ढँक तो सकते हैं ,

पर तिरोहित नहीं कर सकते। 

यह क्षुद्र बादल ,

मेरे तपिश में पिघल जायेगा ,

पर , मैं सच कहता हूँ ,

मेरा प्यार नहीं बदलेगा ,

नदी समन्दर बन सकती है ,

समन्दर नदी बन सकता है , 

सहरा में सैलाब बन सकता है ,

ये तारे टूट कर गिर सकते हैं ,

हवा प्रलय मचाती है  मचा लेगा ,

पर मेरा प्यार नहीं बदलेगा। 

रचना तिथि- 15 -04 - 21

किसने नाव डुबोई

लहर -लहर नदिया की लहरें ,

पूछ रहीं हर कोर-कोर से ,

होकर अति बेचैन ,

नाव किसने है डुबोई  ?

नाविक था मगरूर ,

नशे में था वह चूर ,

आंधी आई , तूफां आया ,

फिर भी वह तो चेत न पाया।

था उसको बहुत गुरूर , 

था मस्ती में भरपूर ,

जा बैठा मस्तूल के ऊपर ,

नाव गई वह डूब।

आंधी ने नहीं ,तूफां ने नहीं ,

ना लहरें , ना नदिया ,

था जिनके हाथों पतवार ,

नाव उसने ही डुबोई। 

रचना तिथि - 07 -05 - 2021 


Saturday, June 19, 2021

प्यार बाँटिये

बाँटना ही है अगर , तो प्यार बाँटिये ,
नफ़रतों की आग , हरगिज न बाँटिये।
यह आग है ,बस आग , करती न कोई फ़र्क़ ,
इस आग से मोहतरम , अपना घर बचाइये।
हम सब ही जल जायेंगे , कोई ना बचेगा ,
दिल में है गर जगह ,मुहब्बत सजाइये।
पास होकर भी हैं हमसब , दूर दूजे से ,
कर रहा मौसम इशारा , इसको जानिये।
घर कीजिये रौशन , अपना प्यार बाँट कर ,
हो सके , तो , प्यार का दीपक जलाइये।
-विजय कुमार सिन्हा "तरुण "
रचना तिथि :- 06 - 05 - 2021

Thursday, June 10, 2021

ये बचपन लौट कर नहीं आता

 ले लो न साहब , एक गुब्बारा-
गुब्बारे बेचने वाले ने कहा ,
पिता के साथ चलता बच्चा
मचल पड़ा ,
पापा , गुब्बारे ले दो न  ....
नहीं - मँहगे हैं ,
नहीं साहब , मँहगा नहीं है साहब ,
बस ,पाँच रुपये के ही तो हैं ,
पाँच रुपये ,
पाँच रुपये में क्या होता है साहब !
 एक रोटी की कीमत ,
बच्चा फिर मचला -
पापा ले दो न ,
बच्चे का पिता आगे बढ़ गया ,
बच्चा मायूस हो गया।
यका - यक गुब्बारे वाला
सामने आ गया ,
बच्चे के हाथ में
एक गुब्बारा देते हुए बोला-
साहब मत देना पैसे ,
रोटी कहीं और खा लेंगे ,
बच्चे का दिल ना तोड़ेंगे ,
एक गुब्बारे लेकर
इसकी आँखों में
ख़ुशी की जो चमक दिखेगी ,
वह इस पाँच रुपये के गुब्बारे से
कहीं बहुत बड़ी है साहब ,
यह दुनिया की सब से बड़ी ,
अनमोल दौलत है ,ये बचपन
लौट कर नहीं आता साहब ,
ये बचपन लौट कर नहीं आता   ......... 

रचना तिथि :- 07-06-2021

 


Thursday, June 3, 2021

रोटी

रोटी कब सस्ती हुई ?
रोटी कल्ह भी मँहगी थी ,
रोटी  आज भी मँहगी है ,
सब काम -धंधा बन्द  ,
मेहनत - मजूरी बन्द ,
जो चार पैसे कमा लाते थे ,
सब बन्द  ,
ऐसे में रोटी हाथ से
बहुत दूर चली जाती है ,
रोटी , गोल - गोल रोटी ,
लहक कर कभी चाँद बन जाती ,
कभी सूरज बन जाती ,
कभी सितारों में  टाँक दी जाती ,
हाथ से दूर , बहुत दूर चली जाती   .......
माँ बच्चे से कहती -
सो जा मेरे लाल , सो जा ,
चाँद तोड़ लाने की जिद्द ,
बच्चे माँ से करते ,
ला दो न माँ ,
तोड़ कर चाँद ,
खा लेंगे रोटी !
माँ  क्या बताये !
कहती , सो जा मेरे लाल ,
रात चाँद आयेगा ,
तुम्हारे सपनों में ,
तुम्हे रोटी दे जायेगा ,
बच्चा , फिर एक बार मचलता ,
फिर सो जाता .......
माँ सोचती ,
सबको रोटी मिलेगी ,
आश्वासन तो मिला ,
रोटी नहीं मिली ,
जो कुछ मिला ,
वह नून भर भी तो  नहीं था ,
वह भी बहुत दिन  हो गये ,
इसी खयाल में रात  बीत गई ,
सुबह देर  तक सोई रही ,
जब आँख खुली ,
बाहर डुगडुगी पिट रही थी ,
आज कैम्प में ,
रोटी बाँटी जायेगी ,
जिसे चाहिये , आ जाना ,
उसने पलट कर देखा -
बच्चा सो रहा था ,
निश्छल , निश्चल ,
उसने बच्चे को हिलाया ,
पर ,यह क्या !
वह सन्न रह गई ,
बच्चा रोटी के लिये
चाँद पर चला गया ,
सितारों  के बीच  चला गया ,
सूरज  के पास चला गया ,
नहीं , अब लौट कर नहीं आयेगा ,
यों ही डुगडुगी पिटती रहेगी ,
यों ही ,
रोटी पर खेल होता रहेगा ,
हर काल में ,
यों ही ,
रोटी लुढ़क कर
चाँद पर चली जायेगी ...... 
रोटी कब सस्ती हुई ?
रोटी , कल्ह भी मँहगी थी ,
रोटी आज भी मँहगी है     .........
रोटी ! रोटी ! रोटी !

रचना तिथि - 12.04.2021

 

Sunday, March 28, 2021

फागुन का उपहार

आया है रस -रंग ले , होली का त्यौहार ,

विविध रंगों का मेल है ,फागुन का उपहार ,

प्रीत और अनुराग का , बरसै आज फुहार ,

रंग प्यार का घोल कर , करें आज बौछार ,

ऐसो रंग को डारियो , खुशियां मिले हजार।  

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "