Friday, May 12, 2017

गर्जना

चीर रहा सन्नाटे को है ,सागर का गर्जन  ,
भेद तिमिर को रवि क्यों करता  आज रुदन - क्रन्दन   ,
हुई रश्मियाँ मंद , आज , ना हुआ कोई भी वंदन ।

हा ! कैसा अन्याय शत्रु का भारत की धरती पर ,
करके कलम शीश , लाल का , क्षत - विक्षत कर तन को ,
दे रहा चुनौती वर्षों से , वह , भारत के जन - जन को ।

जिसके लाखों सैनिक ने थे , घुटने टेक दिये  ,
वही भीरू - कायर फिर से , है आँखें दिखा रहा ,
गीदर को देखो , बिल्ली की बोली बोल रहा ।

पर  भारत के भाग्य - विधाता , अपने में खोये हैं ,
जाने किन सपनों को ले , आँख मींच  सोये हैं ,
मैं - मैं , तू - तू , तू - तू , मैं -मैं ,  इनमें ही उलझे हैं ।

आज ह्रदय में जन - जन के , जलती बदले की ज्वाला ,
मौन हुई है हवा , हुई स्तब्ध दसों  दिशाएँ ,
नेता की आँखों का पानी , सूख गए हैं लाला ।

होती गर परवा इनको , तो , काश्मीर क्यों जलता ,
क्यों कर राष्ट्र तिरंगे का , अपमान यहाँ पर होता ,
क्यूँ सड़कों पर काश्मीर के , राष्ट्र तिरंगा जलता  ?

कभी राम मन्दिर  में उलझे , कभी कृष्ण मन्दिर  में ,
गंगा की  पावन धारा में   ,  हाथ अपने धो आये ,
पर अपने मन - मन्दिर को , वे साफ़ नहीं कर पाए ।

गर ऐसा होता तो , क्यों , क्रूरता परोसी जाती  ,
गौ रक्षा  व धर्म नाम पर , हत्याएँ क्यों होती  ,
क्यों केसर की क्यारी में , बारूद उगाई जाती  ?

क्यूँ सरहद पर रोज - रोज  , सैनिक शहीद हैं होते  ,
माँ का लाल , बहन का भाई , रोज बिछड़ क्यों जाते
क्यूँ सीमा पर प्रहरी के , सिर को काटे जाते  ?

कब तक होगी पत्थरबाजी ,
कब तक होंगे नारे ,
धर्म - प्यार  की बात  न  सुनते ,मानवता के हत्यारे।

लफ़्जों को छोड़ो , करो अब बारूदों से बातें ,
उनको तो अब उनकी ही , भाषा में समझायें   ,
अरे ! करो आदेश कूच का ,कहर शत्रु पर ढायें ।

हो चाहे बलिदान हमारा , आगे बढ़ते जाएँ ,
भारत माँ की चरणों में ,शत्रु के शीश चढ़ायें  ,
आन तिरंगे की रखनी है , चाहे जान ये जाए
नभ के कोने  - कोने में , हम राष्ट्र - ध्वजा फहराएं ।


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