उठ उठ कर मैं गिरता हूँ ,
गिरता और संभालता हूँ ,
जीवन के सोपानों में ,
नहीं जीत को पाता हूँ ।
यह मन थक कर हुआ हताशा ,
नहीं संबल की कोई आशा ,
फिर भी मन को समझाता हूँ ,
दिल को देता बहुत दिलासा ।
हार मान मत शोक मनायें ,
चलो राह कुछ नयी बनायें ,
श्रम को अपना राज बनायें ,
सामने सच मंजिल मिल जाये ।
चाहे घनघोर अंधेरा हो ,
या फिर तांडव ने घेरा हो ,
कब नदी कभी भी रूकती है ,
कब समय कभी भी रुकता है ।
चल उठ चल , तू आगे चल ,
खुद ही राह बनाता चल ,
तोड़ राह के पाषाणों को ,
मंजिल को पाने तू चल ।
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