Saturday, March 11, 2017

घर - घर का चूहा

मैं , घर - घर का
चूहा कहलाता ,
पर , घर में अब ,
ना घुसने पाता ,
ना ही कपड़े  
कुतर हूँ पाता ,
ना ही रसोई घर में ही
भोजन मैं हूँ कर पाता।

घर - मकान सब  पक्के हो गए ,
बंद हो गईं नालियाँ सारी ,
रोशनदान भी बंद हो गए ,
दरवाजों में लग गई जाली।

रहा न घर में रास्ता कोई ,
जिससे मैं घुस पाता भाई ,
हो गया हाल हमारा खस्ता ,
हमने तब , नापा रास्ता।

है रेलवे स्टेशन ही अब
मेरा स्थाई अड्डा ,
मेरा बसेरा
रेल का डब्बा ,
इसमें खूब
सफर मैं करता ,
बिना टिकट मैं
आता - जाता।

तरह - तरह की
भाषा सुनता ,
तरह - तरह का
भोजन करता ,
छुप कर सभी को
देखा करता ,
घाट  - घाट का
पानी पीता।
एक जगह मैं
कभी ना टिकता ,
यायावर सा
जीवन जीता।

             ---- मंजु सिन्हा

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