सुमन गंध सा महक रहा मेरा जवाहर
धन्य हीरा , धन्य मोती , धन्य वह स्वरूपरानी
था तेजस्वी पूत तेरा , वह जवाहरलाल था ,
जकड़ी हुई जंजीर में परतंत्रता की
कराह रही थी जर्जरित माता हमारी ,
बेड़ियों को तोड़ने ही आ गया सरताज , वह
नाहर जवाहर , कर में ले रणभेरियाँ तब ।
थर्रा उठी थी मही , वह महा रणनाद था
खोई हुई स्वतंत्रता , का , प्रचंड हुँकार था ,
एकता के एक ही झटके में टूटी बेड़ियाँ
त्याग के ही ताप में जल गई परतंत्रता ।
रात वह थी क्या ख़ुशी की , सन सैंतालिस
माह था अगस्त , पंद्रह की वह तारीख थी ,
हर ओर ही आजादी का , तिरंगा लहरा उठा
हर देशवासी का भी सिर , गर्व से ऊँचा उठा ।
हर ओर छाई थी ख़ुशी , हर ओर ही उल्लास था
सम्पूर्ण भारत देश का , नायक जवाहरलाल था ,
क्रूर सन चौंसठ मई सत्ताईस बुध्द्वार को
सो गया चिर नींद में नर केसरी नाहर जवाहर ।
अंक सूना हो गया है आज भारत देश का ,
आदर्श उसका , त्याग उसका सामने है ,
हमको नहीं है भूलना उसकी कहानी
तुम कभी ना छोड़ना आलोक पथ हिन्दुस्तानी ।
( रचना - 1965 , सहयोगी प्रकाशन , जबलपुर से " जवाहर ज्योति "
पुस्तक में प्रकाशित )
No comments:
Post a Comment