विहँस रहा आकाश , धरा की देख वसंती चोली ,
हरित पीत रंग ओढ़ चुनरिया , धरती मन में फूली ।
अति हर्ष से हर्षित हो , धरती का मुख है लाल ,
पूर्व क्षितिज से रंजित रवि ने , फेंका रंग - गुलाल ।
इधर श्याम के अधरों पर , बज उठी हरित बाँसुरिया ,
उधर गोपियाँ लेकर आ गईं , रंग भरी गागरिया ।
भींगी धरती , भींगा अम्बर , भींगी व्रज की टोली ,
फोड़ गगरिया , भिंगो चुनरिया , कान्ह ने खेली होली ।
उपवन में अलि गुञ्जन करता , जैसे बजी शहनाई ,
बेला , चम्पा और चमेली , हर कलियाँ इतराई ।
रंग दे होंठ , कपोल , कैसी आज खुशी है छाई ,
सब के तन - मन रंग देने को यह होली है आई ।
कवियों की यह होली , यह भावुक मन की होली ,
आओ , देखें , वीरों ने है , खेली कैसी होली ।
जन्म - भूमि पर दुश्मन ने , जब - जब भी पांव बढाया ,
कर में धर तलवार , वीर , शत्रु के सम्मुख आया ।
काँप उठा रण - क्षेत्र , रक्त से धरती हो गई लाल ,
गौरव से है खड़ा हिमालय , भारत मां का भाल ।
नगपति का कण - कण सुना रहा , वीरों की ये कहानियाँ ,
वीरों ने जब खेली होली , बही रक्त की नदियाँ ।
डोल रहा होता था अम्बर , चलती रहती थीं गोलियाँ ,
रह - रह कर थीं प्रलय मचाती , हर - हर महादेव की बोलियाँ ।
थीं भेज रही , रण को , भाई को , बहन लगाती रोली ,
ऐ जमीं ! बताओ , सचमुच में है किसने खेली होली ?
( यह कविता 3 1 - 1 2 - 6 7 की लिखी हुई है )