हाँ ,
वह एक बूढ़ी औरत है ,
उसकी बांयी हाथ ,
उसके कमर पर है ,
उसकी दांयी हाथ में ,
एक सोटा है ,
गो , कि उसकी कमर ,
अभी झुकी नहीं है ,
वह अब भी ,
पहाड़ की मानिंद ,
सीधी खड़ी है ,
हाँ , चहरे पर झुर्रियां हैं ,
चहरे की झुर्रियों में ,
अनवरत संघर्षों का ,
इतिहास लिखा है ,
कोई पढ़ सके , तो पढ़े ,
काँपते हाथों की उंगलियां ,
ना जाने कितने संगमरमर ,
तराशे होंगे ,
कोई जान सके तो जाने ,
गड्ढे में दबी - धंसी इन आँखों ने ,
कितने वसंत और पतझड़
देखे होंगे ,
कोई ढूंढ सके , तो ढूंढे ,
और , इन काँपते पैरों ने ,
कितना लम्बा सफर ,
तय किया होगा ,
हिसाब लगा सको तो लगाओ ,
इनके सफेद रेशम सी बालों ने ,
कितने चाँद - सितारे सजाये होंगे ,
गिन सको तो , गिनो ,
फिर देखना तुम ,
तुम्हारी आँखें ,
जरूर नम जायेंगी ,
वह ' माँ ' है , माँ ,
तुम्हारी भी , मेरी भी ,
सब की ही ,
उसे रोटी की चाहत नहीं है ,
चाहत है तुम्हारे दो मीठे बोल की ,
उसे बैसाखी के सहारे की नहीं ,
तुम्हारे मजबूत ,
कन्धों के सहारे की जरूरत है ,
दे सको , तो , दे कर देखो ,
देखना ,
स्वर्ग यहीं उतर आयेगा ,
इसी धरा पर ,
तुम्हारे घर ,
तुम्हारे आँगन ,
तुम्हारे चाक - चौबारे ,
और ,
सब जगह , हर ओर , हर छोर .........
-- विजय सिन्हा " तरुण "
प्रकाशित - हलन्त , अंक अप्रैल 2023